सियासत की पहली सीढ़ी कही जाने वाली छात्र राजनीति के दिन अब राजस्थान में लदने जा रहे हैं और ये दिन दिखाने वाले वहीं नेता है जिन्होंने खुद के सियासी सफर की शुरुआत की थी। कहा जाता है कि देश की मुख्यधारा की राजनीति में आने के लिए एक छात्र का कॉलेज में सियासी सफर बेहद ज़रूरी है। जहां से वह सीखता है वो सारे गुण, जो एक राजनेता में होने चाहिए।
राजस्थान के विश्वविद्यालयों एवं कॉलेजों में पढ़ने वाले और चुनाव लड़ने वाले छात्रों को राजस्थान सरकार की तरफ से जोर का झटका, धीरे से लगा है। छात्र संघ चुनाव लड़ने के दौरान जीवन के कई महत्वपूर्ण निर्णयों के चयन की समझ विकसित करने वाले छात्रों पर अब प्रतिबंध लग चूका है कि वे अपने कॉलेज में चुनावी शिक्षा हासिल नहीं कर सकेंगे।
राजस्थान सरकार ने छात्र हित को ध्यान में रख आधी रात को काम करते हुए उच्च शिक्षा विभाग ने शनिवार देर रात आदेश जारी करते हुए कहा कि इस सत्र में प्रदेश के विश्वविद्यालयों एवं कॉलेजों में छात्रसंघ चुनाव नहीं होंगे। पिछले कुछ दिनों से ही छात्र संघ चुनाव न होने के कयास लगाए जा रहे थे। जिन्हें मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के बयान के बाद और बल मिला। उन्होंने कहा कि जब पहले भी चुनाव बंद हुए थे तब मैंने ही शुरू करवाए थे तो उससे बड़ा कमिटमेंट चुनाव को लेकर किसी और का नहीं हो सकता। उन्होंने आगे कहा कि आज जिस तरह से छात्र पैसे खर्च कर रहे हैं, जैसे वो कोई एमएलए - एमपी के चुनाव लड़ रहे हों। उन्होंने पूछा कि आखिर कहां से पैसा आ रहा है और इतने पैसे क्यों खर्च किये जा रहे हैं ?
इस निर्णय से पहले हम राजस्थान में छात्र राजनीति का इतिहास जान लेते हैं।
राजस्थान यूनिवर्सिटी में छात्र संघ का पहला अध्यक्ष वर्ष 1967 में चुना गया था। इसके बाद राजस्थान विश्वविद्यालय छात्रसंघ के अब तक रहे 34 अध्यक्ष में से कौन-कौन आज भी सक्रिय राजनीति में हैं, या रहे हैं और किसने राजनीति से तौबा कर ली। जो राजनीति में सक्रिय हुए, उनमें से कितने सफल हुए और कितने नहीं। अब यह जानेंगे।
राजस्थान विश्वविद्यालय के छात्रसंघ की पाठशाला से निकले राजेंद्र राठौड़, कालीचरण सराफ और राजपाल सिंह शेखावत भाजपा सरकार में मंत्री रह चुके हैं। वहीं अभी राजेंद्र सिंह राठौड़ नेता प्रतिपक्ष बने हुए हैं। विश्वविद्यालय की सियासत में पूर्व उच्च एवं तकनीकी शिक्षा मंत्री कालीचरण सराफ साल 1972 से 1974 तक सक्रिय रहे। इस दौरान वे 1973-74 में छात्रसंघ अध्यक्ष रहने के बाद प्रदेश की सक्रिय राजनीति में आ गए। वहीं राजेंद्र राठौड़ वर्ष 1978-79 में छात्रसंघ अध्यक्ष रहे। छात्र राजनीति से विदाई लेने के बाद वे कई बार विधायक रह चुके हैं और वसुंधरा राजे सरकार में मंत्री भी। इसके अलावा राजपाल सिंह शेखावत वर्ष 1980-81 में छात्रसंघ अध्यक्ष रहे और इसके बाद कई बार विधायक भी चुने गए।
वहीं दूसरी तरफ देखें तो कांग्रेस पार्टी के नेता और कैबिनेट मंत्री डॉ. महेश जोशी, विधायक एवं पूर्व राज्यमंत्री रघु शर्मा, कैबिनेट मंत्री प्रताप सिंह खाचरियावास, महेंद्र चौधरी, भाजपा से निष्कासित और वर्तमान में नागौर से लोकसभा सांसद हनुमान बेनीवाल, विधायक और पूर्व मंत्री राजकुमार शर्मा, पार्षद व भाजपा के युवा मोर्चा के प्रदेश अध्यक्ष रह चुके अशोक लाहोटी फिलहाल राज्य की राजनीति में सक्रिय हैं। ये आंकड़ें अब सवाल छोड़ रहे हैं कि क्यों छात्र चुनावों का कत्ल किया जा रहा है।
सरकार के खिलाफ छात्र संघ चुनावों का परिणाम
वर्ष 2013 में जब भाजपा सरकार सत्ता में आई तो राजस्थान यूनिवर्सिटी में भाजपा का छात्र संघ एबीवीपी को हार का मुंह देखना पड़ा है। भाजपा के शासन में चारों बार एबीवीपी के प्रत्याशी दूसरे नंबर पर रहे है। अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् के उम्मीदवार वर्ष 2014 और 2015 में कांग्रेस के छात्र संघ एनएसयूआई से हारे है जबकि वहीं दो बार निर्दलीय उम्मीदवारों के सामने घुटने टेकने पड़े। हालांकि, रोचक बात यह भी है कि एबीवीपी के उम्मीदवारों को जिन निर्दलियों के सामने हार का सामना करना पड़ा वो एबीवीपी से बागी होकर ही चुनाव में अपना परचम लहराया था।
आंकड़े कुछ यूँ है।
वर्ष 2014 - NSUI के अनिल चौपड़ा ने ABVP के शंकर गौरा को हराया।
वर्ष 2015 - NSUI के सतवीर चौधरी ने राजकुमार बिवाल को हराया
वर्ष 2016 - निर्दलीय उम्मीदवार अंकित धायल ने ABVP के अखिलेश पारीक को हराया
वर्ष 2017 - निर्दलीय प्रत्याशी पवन यादव ने ABVP के संजय माचेड़ी को हराया
गहलोत सरकार भी देख चुकी है NSUI के हार का तमाशा
ऐसा नहीं है कि सिर्फ भाजपा को ही सरकार में रहते हुए अपने छात्र संगठन की हार को देखना पड़ा है। कांग्रेस का भी कुछ ऐसा ही हाल हुआ है। विश्वविद्यालय के छात्रसंघ चुनाव में अध्यक्ष पद पर गहलोत सरकार के दूसरे कार्यकाल में एनएसयुआई के प्रत्याशियों को एबीवीपी के उम्मीदवारों ने चार चुनावों में से तीन चुनावों में हराया। वहीं एक में निर्दलीय ने जीत हासिल की।
2010 - ABVP के मनीष यादव ने निर्दलीय मुकेश भाकर को हराया।
2011 - निर्दलीय प्रभा चौधरी ने निर्दलीय महेंद्र सिंह शेखावत को हराया।
2012 - ABVP के राजेश मीणा ने NSUI के विद्याधर मील को हराया।
2013 - ABVP के कानाराम जाट ने NSUI की शेफाली मीणा को हराया।
आंकड़ों को देखा जाएँ तो गहलोत सरकार के दूसरे कार्यकाल में कांग्रेस के छात्र संगठन की हालत बेहद ख़राब रही है। गत 20 वर्षों में प्रदेश में 7 बार चुनावों पर रोक लगी है। जिनमें वर्ष 2005 से 2009 तक छात्रसंघ चुनावों पर कोर्ट की तरफ से रोक रही तो वही 2020 और 2021 में कोरोना की वजह से चुनाव नहीं हुए।
गत 13 वर्षों के छात्र संघ चुनावों के परिणाम को देखा जाएं तो उनमें से 11 चुनावो के परिणाम में अध्यक्ष पद पर सरकार से जुड़ी पार्टी के उम्मीदवार को शिकस्त झेलनी पड़ी है। इस दौरान चुनावी नतीजों में अधिकतर निर्दलीय उम्मीदवारों ने जीत हासिल की या फिर विपक्षी पार्टी के उम्मीदवार ने। लेकिन पिछले कुछ समय से छात्र संघ के चुनावों में बागी हुए कैंडिडेट ने पार्टियों की चुनावी गणित को बिगाड़ते हुए लाल आँख दिखाई है।
2018 में कांग्रेस सरकार फिर से सत्ता में आई, लेकिन केवल दो बार ही चुनाव हो पाएं। सत्र 2020 और 2021 में कोरोना के कारण चुनाव नहीं हुए तो वहीं 2019 के चुनावों में निर्दलीय पूजा वर्मा ने ABVP के अमित कुमार को हराया। कोरोना के कारण दो साल रोक के बाद वर्ष 2022 में निर्दलीय उम्मीदवार निर्मल चौधरी ने NSUI की बागी निहारिका जोरवाल को हरा कर जीत हासिल की।